मेरे गमों में मेरी हिस्सेदार नहीं लगती,
ये लड़की मेरी कहानी का किरदार नहीं लगती।
उसकी फिकर करूं तो हुकूमत बताती है,
यार ये लड़की समझदार नहीं लगती।
है जानना क्या बताती है अपने घर मुझे,
मगर मेरे घर से उसके घर की दीवार नही लगती।
मैं हकीक़त जनता हूं फिर भी छुपाती है बातें
मूंह पे झूठ बोलती है यार ईमानदार नहीं लगती।
मुझे पकड़ लेती है खटिया उससे हिज़्र की बात सुनकर,
यार वो मुझसे जुदा होकर भी बीमार नहीं लगती।
झुकना पड़ता है मुझे उसकी ग़लती के आगे,
गुनाह इतनी चालाकी से करती है गुनेहगार नही लगती।
बेफिजूल ही पढ़ रहे हो उसके हक़ में कलाम तुम,
तुम्हारी इन दुवाओं की ये ज़रा भी हकदार नहीं लगती।।
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