धृतराष्ट्र ने गांधारी को सभा में बुलाने के लिए क्यों उचित समझा
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धृतराष्ट्र ने गांधारी को सभा में बुलाने के लिए क्यों उचित समझा
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गांधारी का दुर्योधन को समझाना
दुर्योधन के सभा से चले जाने पर भीष्म जी कहते हैं कि- 'दुर्योधन लक्ष्य सिद्धि के उपाय के विपरीत कार्य करने वाला तथा क्रोध और लोभ के वशीभूत रहने वाला है।' तब श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र को दुर्योधन व उसके सहयोगियों को कैद करने की सलाह देते हैं अब धृतराष्ट्र गांधारी को बुलाते हैं और वह दुर्योधन को समझाती हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 129 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
धृतराष्ट्र का गांधारी को सभा में बुलाना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता विदुर से शीघ्रतापूर्वक कहा- 'तात! जाओ, परम बुद्धिमानी और दूरदर्शिनी गांधारी देवी को यहाँ बुला लाओ! मैं उसी के साथ इस दुर्बुद्धि को समझा बुझाकर राह पर लाने की चेष्टा करूंगा। यदि वह भी उस दुष्टचित्त दुरात्मा को शांत कर सके तो हम लोग अपने सुहृद श्रीकृष्ण कि आज्ञा का पालन कर सकते हैं। दुर्योधन लोभ के अधीन हो रहा है। उसकी बुद्धि दूषित हो गई है और उसके सहायक दुष्ट स्वभाव के ही हैं। संभव है, गांधारी शांतिस्थापन के लिए कुछ कहकर उसे सन्मार्ग का दर्शन करा सके। यदि ऐसा हुआ तो दुर्योधन के द्वारा उपस्थित किया हुआ हमारा महान एवं भयंकर संकट दीर्घकाल के लिए शांत हो जाएगा और चिरस्थायी योगक्षेम की प्राप्ति सुलभ होगी।[1]
धृतराष्ट्र-गांधारी संवाद
राजा की यह बात सुनकर विदुर धृतराष्ट्र के आदेश से दूरदर्शिनी गांधारी देवी को वहाँ बुला ले आए। उस समय धृतराष्ट्र ने कहा- गांधारी! तुम्हारा वह दुरात्मा पुत्र गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। वह ऐश्वर्य के लोभ में पड़कर राज्य और प्राण दोनों गंवा देगा। मर्यादा का उल्लंघन करने वाला वह मूढ़ दुरात्मा अशिष्ट पुरुष की भाँति हितैषी सुहृदों की आज्ञा को ठुकराकर अपने पापी साथियों के साथ सभा से बाहर निकल गया है। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! पति का यह वचन सुनकर यशस्विनी राजपुत्री गांधारी महान कल्याण का अनुसंधान करती हुई इस प्रकार बोली। गांधारी ने कहा- महाराज! राज्य की कामना से आतुर हुए अपने पुत्र को शीघ्र बुलवाईये। धर्म और अर्थ का लोप करने वाला कोई भी अशिष्ट पुरुष राज्य नहीं पा सकता, तथापि सर्वथा उद्दंडता का परिचय देने वाले उस दुष्ट ने राज्य को प्राप्त कर लिया है। महाराज! आपको अपना बेटा बहुत प्रिय है, अत: वर्तमान परिस्थिति के लिए आप ही अत्यंत निंदनीय हैं, क्योंकि आप उसके पापपूर्ण विचारों को जानते हुए भी सदा उसी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं। राजन! इस दुर्योधन को काम और क्रोध ने अपने वश में कर लिया है, यह लोभ में फंस गया है; अत: आज आपका इसे बलपूर्वक पीछे लौटाना असंभव है। दुष्ट सहायकों से युक्त, मूढ़, अज्ञानी, लोभी और दुरात्मा पुत्र को अपना राज्य सौंप देने का फल महाराज धृतराष्ट्र स्वयं भोग रहे हैं। कोई भी राजा स्वजनों में फैलती हुई फूट की उपेक्षा कैसे कर सकता है? राजन! स्वजनों में फूट डालकर उनसे विलग होने वाले आपकी सभी शत्रु हँसी उड़ायेंगे। महाराज! जिस आपत्ति को साम अथवा भेदनीति से पार किया जा सकता है, उसके लिए आत्मीयजनों पर दण्ड का प्रयोग कौन करेगा?
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