"साखी सबद ही गावत भूले ,आतम खबįर न जाना"आशय ˙ʼ कीिजए।(२)
Share
"साखी सबद ही गावत भूले ,आतम खबįर न जाना"आशय ˙ʼ कीिजए।(२)
Sign Up to our social questions and Answers Engine to ask questions, answer people’s questions, and connect with other people.
Login to our social questions & Answers Engine to ask questions answer people’s questions & connect with other people.
Answer:
साखी संस्कृत 'साक्षित्' (साक्षी) का रूपांतर है। संस्कृत साहित्य में आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाले के अर्थ में साक्षी का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने कुमारसंभव (5,60) में इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है। |सिद्धों के अपभ्रंश साहित्य में भी प्रत्यक्षदर्शी के रूप में साखी का प्रयोग हुआ है, जैसे 'साखि करब जालंधर पाए ' (सिद्ध कण्हृपा)।
आगे चलकर नाथ परंपरा में गुरुवचन ही साखी कहलाने लगे। इनकी रचना का सिलसिला गुरु गोरखनाथ से ही प्रारंभ हो गया जान पड़ता है, क्योंकि खोज में कभी-कभी जोगेश्वर साखी जैसे पद्य संग्रह मिल जाते हैं।
आधुनिक देशी भाषाओं में विशेषत: हिंदी निर्गुण संतों में साखियों का व्यापक प्रचार निस्संदेह कबीर द्वारा हुआ। गुरुवचन और संसार के व्यावहारिक ज्ञान को देने वाली रचनाएँ साखी के नाम से अभिहित होने लगीं। कबीर ने कहा भी है, साखी आँखी ज्ञान की। कबीर के पूर्ववर्ती संत नागदेव की साखी नामक हस्तलिखित प्रति भी मिली है परंतु उसका संकलन उत्तर भारत, संभवत: पंजाब में हुआ होगा, क्योंकि महाराष्ट्र में नामदेव की वाणी पद या अभग ही कहलाती है, साखी नहीं।
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार दादुदयाल के शिष्य रज्जब ने अपने गुरु की साखियों को अंगों में विभाजित किया। रज्जब का काल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी है-कबीर के लगभग सौ वर्ष बाद। कबीर वचनावली में साखियाँ विभिन्न अंगों में पाई जाती हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कबीर वचनावली का संग्रह रज्जब के पश्चात् हुआ होगा। कबीर ने तो 'मसि कागद छूयो' नहीं अतएव संभावना यही है कि उनके परवर्ती शिष्यों ने अपने गुरु की साखियों-सिखावनी-को विभिन्न अंगों में विभाजित कर दिया होगा।
साखी अपभ्रंश काल से बहुप्रचलित छंद 'दूहा' (दोहा) में लिखी जाती रही है अत: 'दूहा' का पर्याय भी समझी जाती रही है परंतु तुलसीदास के समय तक वह दोहा का पर्याय नहीं रह गई।
'साखी', सबदी, दोहरा, कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं अधम कवि, निंदहिं वेद पुराण।।
तुलसीदास का समय ईसा की सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी है। प्रतीत होता है कि कबीर के समय से अथवा उनसे भी पहले साखी दोहा के अतिरिक्त चौपाई, चौपई, सार, छप्पय, हरिपद आदि छंदों में भी लिखी जाने लगी थी। 'गुरु ग्रंथसाहब' में साखी को सलोकु कहा गया है।
मराठी साहित्य में भी हिंदी के प्रभाव से 'साकी' या 'साखी' का चलन हो गया था। वहाँ भी पहले वह 'दोहरा' छंद में लिखी जाती थी। पर क्रमश: अन्य छंदों में भी प्रयुक्त होने लगी। तुलसीदास के समान मराठी संत स्वामी रामदास ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रंथ दासबोध में उसकी अन्य काव्य प्रकारों से पृथक् गणना की है-