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बड़े शहर में जब रहता था
जनहित संदेशों पे हँसता था
कहीं शौचालय कहीं छोटा परिवार
स्वच्छता तो कहीं शिक्षा का प्रचार
घरेलू हिंसा की रोकथाम कभी
ऊँच नीच समता का पैग़ाम कभी
कहीं अस्पृश्यता से मुक्ति
किसी बैनर पे नशा मुक्ति
विज्ञापन ऐसे देखकर पेट दबाकर हँसता था
आज इनकी ज़रूरत क्या
यही सोचकर सदा अचरज में मैं रहता था
जब गाँव आने का मोका मिला
एक अलग ही वहाँ संसार दिखा
आज भी बेटी मारी जाए
पत्नियाँ आज भी पीटी जाएँ
बच्चों की फौज भूख से बिलबिलाती है
सुबह उठर आज भी बहू बेटी
अंधेरे में झाड़ियों के पीछे जाती हैं
स्वच्छता का ज्ञान आज भी शून्य है
शिक्षा का स्तर आज भी पूरा न्यून है
आज भी ढोंगी गाँव में पूजे जाते हैं
शौक़ से वे अपने पैर पड़वाते हैं
ऐ नाई, ऐ ढीमर जैसे संबोधन
आज भी बदस्तूर सुने जाते हैं
मृत्युभोज में भी नुक़्स निकाले जाते हैं
पेड़ के नीचे बैठे पंचों के हुक्मों पर
प्रेमी युगल मार दिए जाते हैं
छुआछूत जातपात का दैत्य
आज भी मुँह बाए खड़ा है
अंधविश्वास के विरोध में
आज भी न कोई खड़ा है
इन विज्ञापनों का महत्व आज समझ में आता है
देश के शेष पिछड़ेपन पर मुझको रोना आता है
शिवम् खरे
पन्ना, मध्यप्रदेश
हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।