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विडम्बना है कि स्वच्छता का सीधा सम्बन्ध हमारी सेहत से होने के बाद भी हमारे समाज में स्वच्छता को लेकर कभी कोई गम्भीर किस्म का काम तो दूर, सार्थक चर्चा तक नहीं होती। हाँ, कभी-कभार कुछ बातें जरूर होती है पर वे बातें भी ज्यादातर रस्मी तौर पर ही कर ली जाती है। इधर अब की सरकारों ने स्वच्छता पर फोकस करना शुरू तो किया है पर अब भी यह सरकारीकरण से बाहर आकर लोगों के लिये जन अभियान का रूप नहीं ले पा रहा है।
महात्मा गाँधी ने सफाई की कीमत 1910–20 के दशक में ही समझ ली थी और उन्होंने इसके महत्त्व पर रोशनी डालते हुए यहाँ तक कहा था कि स्वच्छता आजादी से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। लेकिन गाँधी की इस बात को हम या तो भूल गए या अब तक नहीं समझ पा रहे हैं। इसके लिये अब भी सरकारों को निर्मल भारत और स्वच्छता अभियान चलाने पड़ रहे हैं। बात–बात पर गाँधी का अनुसरण करने की बातें करने वाले भी अपने परिवेश की साफ़–सफाई के लिये खुद भी जवाबदेह नहीं हो पा रहे हैं।
लगता है कि हम अपनी सेहत को ठीक रखने या उसकी चिन्ता करने का काम भी सरकार के हवाले कर चुके हैं। जो स्वच्छता हमें अपने आसपास रखनी चाहिए उसके लिये भी अब हम सरकार की तरफ टकटकी लगाए देखते रहते हैं कि एक दिन सरकार आएगी और हमारे आसपास की गन्दगी को दूर कर इसे साफ़ करेगी और इस झूठी आस में हम बीमार-पर-बीमार होते रहते हैं लेकिन कभी आगे बढ़कर हमारे आसपास की ही सही साफ़-सफाई के बारे में न सोचते हैं और न ही कभी करते हैं।
कुछ लोग सफाई पसन्द जरूर होते हैं पर वे भी अपने घर की अच्छी तरह से साफ–सफाई करने के बाद इकट्ठा हुए कूड़े–कचरे को या तो सड़क पर या चौराहे के पास या सरकारी इमारतों के अहातों में डाल दिया करते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों पर गौर करें तो साफ़ है कि हमारी ज्यादातर बीमारियों के लिये हमारे द्वारा फैलाया गया कूड़ा–कचरा ही जिम्मेदार है। इसी वजह से हमारे नदी–नालों सहित जल स्रोत लगातार प्रदूषित होते जा रहे हैं। यहाँ तक कि कई जगह हमारा भूगर्भीय जल भंडार भी इससे अछूता नहीं रह पा रहा है।
कई स्थानों पर भूमिगत जल स्रोत गन्दा या प्रदूषित पानी उलीच रहे हैं। इनमें उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक पदार्थों को बिना उपचारित किये जमीन में छोड़ देने या नालों में बहा देने जैसी स्थितियाँ भी शामिल हैं। इसके अलावा सीवर के पानी को पेयजल के पानी में मिलने से भी हम नहीं रोक पा रहे हैं। नदियों की सफाई की जगह हम उनमें प्रतिमाएँ और पूजन सामग्री विसर्जित कर रहे हैं। उनके किनारों को हमने सार्वजनिक शौचालयों में बदल दिया है।
साल-दर-साल बढ़ते जल संकट से स्थितियाँ और विकराल होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का स्पष्ट मानना है कि भारत में 80 फीसदी से ज्यादा बीमारियाँ सिर्फ प्रदूषित पानी के कारण ही होती हैं। देश के स्वास्थ्य बजट का करीब 80 फीसदी हिस्सा केवल जलजनित बीमारियों के इलाज और रोकथाम पर ही खर्च होता है। बार–बार पानी उबाल कर पीने के पैगामों के बाद भी अब तक लोग इसे अमल नहीं कर पाते हैं।
सरकारें कुछ हद तक काम कर सकती हैं पर जब हमारी सरकारें स्वच्छता का निदान कर साफ़-सफाई के काम भी जब खुद करने लगती हैं तो समस्या की भयावहता और भी बढ़ जाती है। इस तरह हम लोगों को और भी पंगु बनाते जा रहे हैं। पहले ही लोगों में किसी के लिये कुछ करने का जज्बा नहीं है और ऐसे में हम उनकी सफाई जैसे काम को भी करने लगें तो कैसे चलेगा।
दूसरा सरकारी सुविधाएँ और संसाधन भी इतने पर्याप्त नहीं है कि हम आगे के दिनों में साफ़–सफाई का काम सरकारी इन्तजामों से करते रहने की उम्मीद कर सकें। हाँ, सरकारें सिर्फ लोगों में जन चेतना के प्रयास कर सकती हैं और उन्हें यह बताने की कोशिश भर कर सकती है कि उनकी सेहत के लिये स्वच्छता कितनी जरूरी है। इसे हमें शिक्षा और स्वास्थ्य से जोड़ने की महती जरूरत है।