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युवा पीढ़ी के सामने चुनौतियां।
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जो देश कभी जगद्गुरु हुआ करता था, उसी भारतवर्ष के राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत जीवन में चतुर्दिक् अराजकता और उच्छृंखलता छाई हुई है। जीवन मूल्यों एवं आदर्शों के प्रति आस्था-निष्ठा की बात कोई सोचता ही नहीं। वैचारिक शून्यता और दुष्प्रवृत्तियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ दिशाहीन मनुष्य पतन की राह पर फिसलता जा रहा है। उसे संभालने और उचित मार्गदर्शन देने वालों का भी अभाव ही दिखाई देता है। कुछ गिने-चुने धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन, सामाजिक संस्थाएं और प्रतिष्ठान ही इस दिशा में सक्रिय हैं अन्यथा अधिकांश तो निजी स्वार्थ एवं व्यवसायिक दृष्टिकोण से ही कार्यरत लगते हैं। ईमानदारी, मेहनत और सत्यनिष्ठा के साथ निःस्वार्थ भाव से स्वेच्छापूर्वक जनहित के कार्य करने वालों को लोग मूर्ख ही समझते हैं। उनके परिश्रम एवं भोलेपन का लाभ उठाकर वाहवाही लूटने वाले समाज के ठेकेदार सर्वत्र दिखाई देते हैं।
समाज सेवा का क्षेत्र हो या धर्म-अध्यात्म अथवा राजनीति का, चारों ओर अवसरवादी, सत्तालोलुप, आसुरी प्रवृत्ति के लोग ही दिखाई देते हैं। शिक्षा एवं चिकित्सा के क्षेत्र, जहां कभी सेवा के उच्चतम आदर्शों का पालन होता था, आज व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के केन्द्र बन गए हैं। व्यापार में तो सर्वत्र कालाबाज़ारी, चोरबाजारी, बेईमानी, मिलावट, टैक्सचोरी आदि ही सफलता के मूलमंत्र समझे जाते हैं। त्याग, बलिदान, शिष्टता, शालीनता, उदारता, ईमानदारी, श्रमशीलता का सर्वत्र उपहास उड़ाया जाता है। सामान्य नागरिक से लेकर सत्ता के शिखर तक अधिकांश व्यक्ति अनीति-अनाचार के आकंठ डूबे हैं। प्रत्येक व्यक्ति के मन में निजी स्वार्थ व महत्वाकांक्षाओं के साथ-साथ ईर्ष्या, घृणा, बैर की भावनाएं जड़ जमाए हुए हैं। ऐसी विकृत मानसिकता के चलते मनुष्य वैज्ञानिक प्रगति से प्राप्त सुख-सुविधा के अनेकानेक साधनों का भी दुरुपयोग ही करता रहता है। फलतः उसका शरीर अन्दर से खोखला होकर अनेकानेक रोगों का घर बनता जा रहा है। मनुष्य की इच्छाओं व कामनाओं की कोई सीमा नहीं है, धैर्य व संयम की मर्यादाएं टूट रही हैं, अहंकार व स्वार्थ का नशा हर समय सिर पर सवार रहता है। ऐसी स्थिति में क्या सामाजिक समरसता व सहयोग की भावना जीवित रह सकती है? सुख, शान्ति व आनन्द के दर्शन हो सकते हैं? जहां चारों ओर धनबल और बाहुबल का नंगा नाच हो रहा हो, घपलों-घोटालों का बोलबाला हो, उस समाज में क्या वास्तविक प्रगति कभी हो सकती हैं?
मानव के इस पतन-पराभव का कारण खोजने का यदि हम सच्चे मन से प्रयास करें तो पता चलेगा कि सारी समस्याओं की जड़ पैसा है। सारा संसार की अर्थप्रधान हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति हर समय अधिक से अधिक धन कमाने की उधेड़बुन में लगा रहता है। इसके लिए अनीति, अनाचार, भ्रष्टाचार जैसे सभी साधनों का खुले आम प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार कमाए हुए धन के कारण ही समाज में सर्वत्र मूल्यविहीन भोगवादी संस्कृति का अंधानुकरण और विलासिता का अमर्यादित आचरण चारों ओर देखा जा सकता है। यह सब जानते समझते हुए भी आदमी पैसे के पीछे पागल हो रहा है।
युवा वर्ग पर इसका प्रभाव
आज का युवा वर्ग ऐसे ही दूषित माहौल में जन्म लेता है और होश संभालते ही इस प्रकार की दुखद एवं चिन्ताजनक परिस्थितियों से रूबरु होता है। आदर्शहीन समाज से उसे उपयुक्त मार्गदर्शन ही नहीं मिलता और दिशाहीन शिक्षा पद्धति उसे और अधिक भ्रमित करती रहती है। ऐसे दिग्भ्रमित और वैचारिक शून्यता से ग्रस्त युवाओं पर पाश्चात्य अपसंस्कृति का आक्रमण कितनी सरलता से होता है, इसे हम प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। भोगवादी आधुनिकता के भटकाव में फंसी युवा पीढ़ी दुष्प्रवृत्तियों के दलदल में धंसती जा रही है। विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थान जो युवाओं की निर्माण स्थली हुआ करते थे आज अराजकता एवं उच्छृंखलता के केन्द्र बन गए हैं। वहां मूल्यों एवं आदर्शों के प्रति कहीं कोई निष्ठा दिखाई ही नहीं देती। सर्वत्र नकारात्मक एवं विध्वंसक गतिविधियां ही होती रहती हैं। ऐसे शिक्षक व विद्यार्थी जिनमें कुछ सकारात्मक और रचनात्मक कार्य करने की तड़पन हो, बिरले ही मिलते हैं। इसी का परिणाम है कि हमारा राष्ट्रीय एवं सामाजिक भविष्य अंधकारमय लग रहा है।
आज से कुछ समय पूर्व पारिवारिक पृष्ठभुमि को बच्चों को संस्कारित एवं विकसित करने का सबसे बड़ा कारण बताया जाता है किन्तु आजकल पारिवारिक के साथ-साथ बाजार की बदलती वैश्विक परिस्थितियों को भी मद्देनजर रख कर बच्चों के विकास पर कार्य किया जाना जरूरी है।